कोरोनावायरस के जीनोम-अनुक्रमण के लिए भारत-श्रीलंका की संयुक्त पहल

India-Sri Lanka joint initiative for genome-sequencing of corona virus
सार्स-सीओवी-2 की प्रतीकात्मक तस्वीर (क्रिएटिव कॉमन्स)
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नई दिल्ली: कोरोना वायरस के विरुद्ध भारतीय वैज्ञानिक और शोधकर्ता निरंतर अध्ययन और अनुसंधान में जुटे हुए हैं। चूंकि कोविड-19 एक वैश्विक महामारी है, ऐसे में इससे जुड़े शोध और अनुसंधान में भी अंतरराष्ट्रीय सहकार आवश्यक है। एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में भारत और श्रीलंकाने दोनों देशों में सार्स-सीओवी-2 (कोरोना का वैज्ञानिक नाम) की जीनोम सर्विलांस गतिविधियों को संयुक्त रूप से संचालित करने का निर्णय लिया है कोविड-19 के विरुद्ध इस महत्वपूर्ण पहल को भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार के कार्यालय की ओर से आगे बढ़ाया गया है। उल्लेखनीय है कि इस संयुक्त पहल को स्वास्थ्य- शोध को प्रोत्साहित करने वाली संस्था ‘वेलकम ट्रस्ट’ का भी समर्थन हासिल हुआ है।‘वेलकम ट्रस्ट, भारत और श्रीलंका के शोधार्थियों के समूह (कंसोर्शियम) को शोध के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करेगा। इस समूह मेंभारतकी ओर से सीएसआईआर की प्रयोगशाला जिनोमिकी और समवेत जीव विज्ञान संस्थान (सीएसआईआर-आईजीआईबी), और श्रीलंका के कोलंबो विश्वविद्यालय की सहभागिता है। दोनों देश इस मामले में माइक्रोलैब्स सैटेलाइट नेटवर्क के जरिये अपने कार्य को मूर्त रूप देंगे।

दरअसल सार्स-सीओवी-2 के नए और विभिन्न खतरनाकसंक्रामक स्वरूपों के सामने आने के कारण उनका तेजी से फैलना, विभिन्न परीक्षणों में उनकापकड़ में न आना और उन पर टीकों के प्रभाव जैसे पहलू हाल के दिनों में एक बड़ी चिंता के रूप में उभरे हैं। कोरोना के ये नए प्रतिरूप इस महामारी से निपटने के वैश्विक प्रयासों के लिये एक कठिन चुनौती हैं। परिणामस्वरूप इस दिशा में शोध और अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं समन्वय अपरिहार्य हो गया है। इस कड़ी में भारत-श्रीलंका की संयुक्त शोध की इस पहल का महत्व बहुत बढ़ जाता है।

इस परियोजना में भारत और श्रीलंका के शोधार्थी दोनों देशों में जीनोम सर्विलांस और महामारी विज्ञान की क्षमताओं को परखेंगे। सीक्वेंसिंग के वितरित संकुलों के मापन और विश्लेषण के लिए एक मापन-योग्य हब-एंड-स्पोक मॉडल स्थापित किया जाएगा। इस दिशा में, वर्तमान में कार्यरत मेगालैब्स, टीयर-2 और टीयर-3के शहरों और कस्बों में विभिन्न माइक्रोलैब्स की स्थापना में सहयोग करेंगे। इस मॉडलकी सहायता से सीक्वेंस के लिए मिलने वाले पॉजिटिव टेस्ट के समय को घटाने के साथ ही पब्लिक डाटा डिपॉजिट में लगने वाले समय को भी कम किया जा सकेगा। इससे प्राप्त निष्कर्षों का शोधकर्ता डायग्नोस्टिक्स यानी जांच-पड़ताल, वैक्सीन और अन्य उपचार संबंधी पद्धतियों के लिए इस्तेमाल करने में सक्षम हो सकेंगे। साथ ही संबंधित निकायों को इनसे परिस्थिति और समय के अनुसार नीतियां बनाने में भी मदद मिलेगी। सीएसआईआर-आईजीआईबी के निदेशक डॉ. अनुराग अग्रवाल इस मॉडल की खूबियों के बारे में कहते हैं कि इससे मौजूदा प्रविधियों की तुलना में तीन हफ्तों के समय की बचत की जा सकती है। इस मॉडल से जुड़ा उनका शोध पत्र इस महीने की शुरुआत में ‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित भी हुआ है, जिसमें उन्होंने हब-एंड-स्पोक मॉडल को विस्तार से समझाया है।

भारत-श्रीलंका का यह शोध समूह डब्ल्यूएचओ-सिएरो की क्षेत्रीय संदर्भ प्रयोगशाला से तकनीकी समन्वय भी करेगा ताकि सीक्वेंसिंग से जुड़ी समग्र प्रक्रिया और सुसंगत एवं सुगठित बन सके। साथ ही दोनों देशों में शोधार्थियों एवं साझेदारों की क्षमताओं को और निखारने के लिए मानकीकृत प्रयोगशाला कौशल और प्रशिक्षण पाठ्यक्रम भी विकसित किया जाएगा। (इंडिया साइंस वायर)


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