नई दिल्ली (इंडिया साइंस वायर): रासायनिक अभिक्रियाओं को तेज करने के लिए उनमें विशिष्ट एजेंट्स का उपयोग होता है, जिन्हें उत्प्रेरक कहा जाता है। कुशल एवं प्रभावी उत्प्रेरक रासायनिक प्रक्रिया को अधिक प्रभावी बनाने और उसके माध्यम से वांछित उद्देश्य को पूरा करने में मददगार होते हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), गुवाहाटी और इसी शहर में स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मास्यूटिकल एजुकेशन ऐंड रिसर्च (नाइपर) के शोधकर्ताओं ने औद्योगिक एवं जैविक कचरे को मूल्यवान रसायनों में रूपांतरित करने के लिए एक प्रभावी “पिनसर उत्प्रेरक” प्रणाली विकसित की है। शोधकर्ताओं का कहना है कि “पिनसर उत्प्रेरक” की बेहद कम मात्रा ग्लिसरॉल जैसे औद्योगिक अपशिष्ट को लैक्टिक एसिड और हाइड्रोजन ईंधन में परिवर्तित कर सकती है।
यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि रूपांतरण की इस प्रक्रिया के बाद “पिनसर उत्प्रेरक” पुनः प्राप्त हो जाता है, जिसका उपयोग रासायनिक अभिक्रिया को तेज करने के लिए दोबारा किया जा सकता है। इसी तरह, कम ऊर्जा घनत्व वाले बायो-एथेनॉल को बायो-ब्यूटेनॉल जैसे उच्च ऊर्जा घनत्व वाले जैविक ईंधन में रूपांतरित किया जा सकता है। नाइपर द्वारा जारी आधिकारिक बयान में कहा गया है कि बायोमास प्रसंस्करण के दौरान पैदा हुए ग्लिसरॉल एवं एथेनॉल जैसे मध्यवर्ती उत्पादों का औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण रसायनों में रूपांतरण दुनियाभर में बढ़ रहा है। बायोडीजल उत्पादन के दौरान सह-उत्पाद के रूप में प्राप्त ग्लिसरॉल को लैक्टिक एसिड एवं हाइड्रोजन में परिवर्तित किया जा सकता है।
खाद्य, फार्मास्यूटिकल, कॉस्मेटिक और पॉलिमर उद्योगों में ग्लिसरॉल का व्यापक उपयोग होता रहा है। ऊर्जा क्षेत्र में भी अब इसका उपयोग किया जाने लगा है। इसी तरह, बायोमास प्रसंस्करण से प्राप्त एथेनॉल को उच्च गुणवत्ता के ईंधन में रूपांतरित किया जा सकता है। बायो-एथेनॉल में गैसोलीन की तुलना में कम ऊर्जा घनत्व होता है और इसका सीधे उपयोग करने से इंजन के पुरजों का क्षरण अधिक होता है। इसे उच्च ऊर्जा युक्त ब्यूटेनॉल में रूपांतरित किया जा सकता है, जिसकी प्रकृति गैर-संक्षारक होती है और यह पानी में मिश्रित नहीं होता। ऐसे उपयोगी उत्पादों में ग्लिसरॉल और एथेनॉल का रूपांतरण कुशल उत्प्रेरक के विकास पर ही टिका होता है।
इस अध्ययन से जुड़े आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ता डॉ अक्षय कुमार ए. सीताराम बताते हैं कि “पिनसर उत्प्रेरक जटिल मॉलिक्यूल होते हैं, जिसमें कार्बनिक अर्धांश एक धातु कोर को केकड़े के पंजे की तरह कसकर जकड़े रहता है।” वह कहते हैं, ऐसी व्यवस्था न केवल उत्प्रेरक को स्थिरता प्रदान करती है, बल्कि वांछित रूपांतरणों के लिए चयनात्मक अवसर भी देती है। शोध परिणामों का परीक्षण सैद्धांतिक रूप से कम्प्यूटर आधारित अध्ययनों में किया गया है।
शोधकर्ताओं ने पिनसर उत्प्रेरकों की एक विस्तृत लाइब्रेरी विकसित की है और उनका परीक्षण किया है, जिनका उपयोग इस तरह के रूपांतरणों में किया जा सकता है। उनका कहना है कि ग्लिसरॉल से लैक्टिक एसिड प्राप्त करने की प्रक्रिया में हाइड्रोजन उत्पादन एक बोनस की तरह है, जिसकी ऊर्जा अनुप्रयोगों में बेहद माँग है।
इस अध्ययन के दौरान हानिकारक अभिकर्मकों और विलायकों का उपयोग किए बिना पर्यावरण अनुकूल परिस्थितियों में परीक्षण किए गए हैं। इन परीक्षणों में “पिनसर उत्प्रेरक” को अधिक दक्ष पाया गया है, जो ग्लिसरॉल एवं एथेनॉल से हाइड्रोजन को हटाने और लैक्टिक एसिड तथा ब्यूटेनॉल में उनके चयनात्मक रूपांतरण में प्रभावी है।
यह अध्ययन रॉयल सोसायटी ऑफ केमिस्ट्री से संबद्ध शोध पत्रिकाओं केमिकल कम्युनिकेशन्स और कैटेलिसिस साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी में प्रकाशित किया गया है। इस अध्ययन में डॉ अक्षय कुमार ए. सीताराम के अलावा आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ता कानू दास एवं मोमिता दत्ता और नाइपर के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ हेमंत कुमार श्रीवास्तव शामिल हैं। (इंडिया साइंस वायर)