नई दिल्ली: इन दिनों कोहराम मचा रहे कोरोना वायरस संक्रमण के विभिन्न स्वरूपों को लेकर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मद्रास के शोधकर्ताओं की पड़ताल में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर आए हैं। इसमें कोरोना से होने वाली कोविड-19 के वैज्ञानिक नाम सार्स-सीओवी-2 के बेहद तेजी से हो रहे संक्रमण और मौतों के मामलों की गुत्थी सुलझाने का प्रयास किया गया है। कंप्यूटेशनल टूल्स का उपयोग कर शोधकर्ताओं ने कोरोना के सार्स-सीओवी और एनएल63 स्वरूपों की थाह ली है।
इस अध्ययन में लगी टीम ने यह समझने का प्रयास किया कि वायरस के इन विभिन्न स्वरूपों के स्पाइक प्रोटीन्स मानवीय कोशिकाओं में एस2 रिसेप्टर्स के साथ कैसे संपर्क में आ रहे हैं और इस संपर्क का क्या परिणाम निकल रहा है। इन परिणामों में उससे होने वाले संभावित संक्रमण और बीमारी की भयावहता जैसे बिंदुओं की पड़ताल की जा रही है। यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण होगा कि मानवीय कोशिकाओं में कोरोना वायरस स्पाइक प्रोटीन के माध्यम से ही प्रवेश करता है।
इस शोध में यह सामने आया है कि सार्स-सीओवी को उसके वृहद परिवार बीटा कोरोना वायरस सार्स-सीओवी-2 का ही संबंधी माना जा सकता है। वहीं एनएल63 का संबंध अल्फा कोरोना वायरस से है जो सार्स-सीओवी-2 का कुटुंबी माना जा सकता है। वैज्ञानिकों के समक्ष इन वायरसों के कारण हल्की-फुल्की और बेहद गंभीर बीमारी का कारण पता लगाने की चुनौती रही है। पिछले अध्ययनों से यह पता लगा कि ये तीनों वायरस एस2 रिसेप्टर के माध्यम से मानवीय कोशिकाओं में घुसते हैं। इस शोध का प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जर्नल ‘प्रोटींसः स्ट्रक्चर, फंक्शन,बायोइन्फोर्मेटिक्स’ में किया गया है।
आईआईटी मद्रास में जैव तकनीकी विभाग के प्रोफेसर एम. माइकल ग्रोमिहा और जैव विज्ञान विभाग की प्रोफेसर ज्योति मेहता ने इस अध्ययन के उद्देश्यों को इस प्रकार समझाया, ‘कोरोना वायरस मानव के लिए नए नहीं हैं। उनमें भी एनएल63 जैसे कोरोना वायरस से हल्के-फुल्के लक्षण ही उभरते हैं। फिर भी उसमें और कोरोना के कहीं अधिक खतरनाक सार्स सीओवी और सार्स-सीओवी-2 में कई समानताएं हैं। इससे हमारे समक्ष कई प्रश्न उठते हैं। मसलन, क्या इन सभी वायरसों का उद्भव एक ही पूर्वज से हुआ है? इनके प्रभावों में भिन्नता क्यों है? क्यों किसी के कारण अधिक मौतें हो रही हैं तो किसी के कारण कम? इन वायरसों में क्या समानताएं और क्या विषमताएं हैं? और हम यदि एनएल63 के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्युनिटी विकसित कर लेते हैं तो क्या वह उससे कई गुना खतरनाक सार्स सीओवी या सार्स-सीओवी 2 के खिलाफ भी वह कुछ कारगर हो सकती है? हमारा प्रयास मानव शरीर के अंगों पर इन वायरसों की संपर्क प्रविधि की पड़ताल कर इन प्रश्नों के व्यापक स्तर पर उत्तर तलाशने का है।’
विभिन्न कंप्यूटेशनल टूल्स के उपयोग से टीम को यह पता चला कि स्पाइक प्रोटीन और एस2 के बीच संपर्क के दौरान हाइड्रोफोबिसिटी और संपर्क ऊर्जा का स्तर कोरोना वायरस के संक्रमण और उसकी भयावहता के स्तर को तय करने में अहम भूमिका अदा करता है। इस दौरान यह भी मालूम पड़ा कि सार्स-सीओवी और सार्स सीओवी-2 की तुलना में एनएल63 वायरस की एस बाइंडिंग साइट्स एकदम अनूठी किस्म की है। हालांकि कुछ बाइंडिंग साइट क्षेत्र आरक्षित से होते हैं और उनमें कोई भी आसन्न परिवर्तन प्रतिबंधित होता है। एनएल63 कोरोना वायरस के कम घातक होने के पीछे भी अपेक्षाकृत कम संपर्क क्षेत्र, हाइड्रोफोबिसिटी और संपर्क ऊर्जा को ही वजह बताया गया है।
वर्ष 2002 में सार्स-सीओवी के ही एक स्वरूप ने अपना प्रकोप दिखाया था, लेकिन अब सार्स-सीओवी2 पूरी दुनिया में तबाही मचा रहा है। अपने अध्ययन की उपयोगिता के बारे में शोधकर्ताओं ने कहा कि इससे इस महामारी की भयावहता के स्तर को कम करने एवं उसके लिए प्रभावी उपचार तलाशने में मदद मिलेगी। यह टीम स्वयं इसके लिए दवा तलाशने के अभियान में भी जुटी है। (इंडिया साइंस वायर)